Wednesday, April 29, 2020

Death of Buddha's mother

 महामाया की मृत्यु 

       पाचवे दिन नामकरण संस्कार किया गया । बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया । उसका गोत्र गौतम था । इसीलिये जनसाधारण में वह सिद्धार्थ गौतम से प्रसिद्ध हुआ । बालक के जन्म की खुशियाँ और उसके नामकरण की विधियाँ अभी समाप्त नहीं हुई थी कि महामाया अचानक बीमार पड़ी और उसके रोग ने गम्भीर रूप धारण कर लिया । अपना अन्म समय निकट आया जान उसने शुद्धोदन और प्रजापति को अपनी शय्या के समीप बुलाया और कहा - " मुझे विश्वास है कि असित ने मेरे बच्चे के बारे में जो भविष्यवाणी की है , वह सच्ची निकलेगी । मुझे यही अफसोस है कि मै इस वाणी को पूरा हुआ न देख संकूगी । " प्रजापति ! मै अपना बच्चा तुम्हें सौंप जाती हूँ । मुझे विश्वास है कि उसके लिये तुम उसकी माँ से भी बढ़कर होगी । " मेरा बालक शीघ्र ही मातृ - हीन बालक हो जायेगा । लेकिन मुझे इराकी तनिक चिन्ता नहीं है कि मेरे बाद यथायोग्य विधि से उसका लालन - पालन नहीं होगा । " अब दुखी न हो । मुझे मरने दें । मेरा समय आ पहुँचा है । यम - दूत मेरी प्रतीक्षा कर रहे है । इतना कहते कहते महामाया ने अन्तिम सांस ले ली । शुद्धोदन और प्रजापति दोनों को ही बड़ा दुख हुआ । दोनो फूट - फूट कर रोने लगे । जब सिद्धार्थ की माता का देहान्त हुआ तो उसकी आयु केवल सात दिन की थी । सिद्धार्थ का एक छोटा भाई था । उसका नाम था नन्द । वह शुद्धोदन का महाप्रजापति से उत्पन्न पुत्र था । उसके ताया - चाचा की भी कई सन्तानें थी । महानाम और अनुरुद्ध शुक्लोदन के पुत्र थे तथा आनन्द अमितोदन के । देवदत्त उसकी बुआ अमिता का पुत्र था । महानाम सिद्धार्थ की अपेक्षाबड़ा था और आनन्द छोटा । सिद्धार्थ उनके साथ खेलता - खाताबड़ा हुआ । 

Tuesday, April 28, 2020

असित का आगमन

असित का आगमन

      जिस समय बालक का जन्म हुआ , उस समय हिमालय में असित नामा एक बड़े ऋषि रहते थे । असित ने सुना कि आकाश - स्थित देवता " बुद्ध " शब्द की घोषणा कर रहे है । उसने देखा कि वह अपने वस्त्रों को ऊपर उछाल - उछाल प्रसन्नता के मारे इधर - उधर घूम रहे हैं । वह सोचने लगा कि मै वहाँ क्यो नजाऊँ , जहाँ ' बुद्ध ' ने जन्म ग्रहण किया है । जब असित ऋषि ने समस्त जम्बुद्वीप पर अपनी दिव्यदृष्टि डाली , तो देखा कि शुद्धोदन के घर में एक दिव्य बालक ने जन्म ग्रहण किया है और देवताओं की भी इतनी अधिक प्रसन्नता का यही कारण है । इसलिये वह महान ऋषि असित अपने भानजे नाळक के साथ राजा शुद्धोदन के घर आये और उसके महल के द्वार पर खड़े हुए । अब असित ऋषि ने देखा कि शुद्धोदन के द्वार पर लाखों आदमियों की भीड़ एकत्रित है । वह द्वारपाल के पास गये और कहा - " अरे ! जाकर राजा से कहो कि दरवाजे पर एक ऋषि खड़े है । " द्वारपाल राजा के पास गया और हाथ जोड़कर विनती की - “ राजन् ! द्वार पर एक वृद्ध ऋषि पधारे हैं और आप से भेंट करना चाहते हैं । " राजाने असित ऋषि के बैठने के लिये आसन की व्यवस्था की और द्वार - पाल को कहा - " ऋषि को आने दो । " महल के बाहर आकर द्वारपाल ने असित से कहा " कृपया भीतर पधारें । " असित ऋषि राजा के सामने उपस्थित हुए और उसे खड़े - खड़े आशीर्वाद दिया - " राजन ! आपकी जय हो । आप चिरकाल तक जियें और अपने राज्य पर धर्मानुसार शासन करे । जब शद्धोदन ने असित ऋषि को साष्टांग दण्डवत् किया और उन्हें बैठने के लिये आसन दिया । जब उसने देखा कि असित ऋषि सुखपूर्वक आसीन है तो शद्धोदन ने कहा - " ऋषिवर ! मुझे स्मरण नही है कि इसके पूर्व आपके दर्शन हुए हों । आपके यहाँ आगमन का क्या उद्देश्यह ? आपके यहाँ पधारने का क्या कारण है ? "
        तब असित ऋषि ने राजा शद्धोदन से कहा " राजन् ! तुम्हें पुत्र - लाभ हुआ है । मै उसे देखने के लिय आया हूँ | " शद्धोदन बोला , " ऋषिवरा बालक सोया है । क्या आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करने की कृपा करेंग ? " ऋषि का उत्तर था , " राजन ! इस तरह की दिव्य विभुतियाँ देर तक नही सोती रहती। यह स्वभाव से ही जागरूकत होती है । " तब बालक ने ऋषि पर अनुकम्पा करके अपने जागते रहने का संकेत किया। यह देखा बालक जाग उठा है , शुद्धोदन दृढता पूर्वक दोनो हाथो में लिया और असित ऋषि के सामने आया । असित ने देखा कि बालक बत्तीस महापुरुष - लक्षणों तथा अस्सा अनु - व्यंजनों से युक्त है । उसने देखा कि उसका शरीर शुक्र और ब्रह्मा से अधिक दीप्त है और उसका तेजो मंडल उनके तेजो मंडल से लाख गुणा अधिक प्रादीप्त है उसके मुहँ से तुरन्त ये वाक्य निकला - " निस्संदेह यह अद्भूत पुरूष है । " वे अपने आसन से उठे , दोनो हाथ जोड़े और उसके पैरों पर गिर पड़े । उन्होंने बालक की परिक्रमा की और उसे अपने हाथों में लेकर विचार - मगन हो गये । असित ऋषि पुरानी भविष्यद् वाणी से परिचित थे कि जिस के शरीर में गौतम की तरह बत्तीस महापुरुष - लक्षण होंगे , वह इन दो गतियों में से एक को निश्चित रूप से प्राप्त होगा , तीसरी को नहीं । " यदि वह गृहस्थ रहेगा , तो यह चक्रवृती नरेश होगा । लेकिन वह गृह त्याग कर प्रवर्जित हो जायेगा तो वह सम्यक् सम्बुद्ध होगा । "  असित ऋषिको निश्चय था । कि बालक गृहस्थ नहीं बनेगा । बालक की ओर देखकर , वह सिसकियाँ भर - भर कर रोने लगा । शुद्धोदन ने देखा कि असित ऋषि सिसकियाँ भर - भर कर रो रहा है । उसे इस प्रकार रोता देखकर , शुद्धोदन के रोंगटे खड़े हो गये । उसने असति ऋषि से निवेदन किया - " ऋषिवर ! आप इस प्रकार क्यो रो रहे है ? आंसू क्यो बहा रहे हैं ? ठंडी सांस क्यो ले रहे है ? मै समझता हूँ कि बालक का भविष्य तो निर्विघ्न ही है ? "
         असित ऋषि ने राजा को उत्तर दिया - " राजन् ! मै बच्चे के लिये नही रो रहा ही इसका तो भविष्य निर्विघ्न है । मै अपने लिये रो रहा हूँ । " " ऐसा क्यो ? " शुद्धोदन ने पूछा । असित ऋषि का उत्तर था , " मै  जराजार्णी हूं , क्या प्राप्त हूँ और ये बालक निश्चयात्मक रूप से ' बौधि लाभ करेगा सम्यक्समबुद्ध होगा तदनन्तर वह लोक - कल्याण के लिये आपना धर्म - चक्र प्रर्वितत करेगा , जो इससे पहले संसार में कभी प्रवर्तित नही हुआ है । " जिस श्रेष्ठ जीवन की , जिस सद्धर्भ की वह घोषणा करेगा वह आदि में कल्याणकारक होगा , मध्य में कल्याणकारक होगा और अन्त में कल्याण कारक होगा । वह अर्थ तथा व्यंजन की दृष्टि से निर्दोष होगा । वह परिशुद्ध होगा । वह परिपूर्ण होगा । " जिस प्रकार राजन् ! कभी कही इस संसार में उदुम्बर ( गुलर ) पुष्पित होता 
     " लेकिन राजन् ! मै उस बुद्ध को नही देख सकूँगा । इसलिये राजन् ! मैं इस दुःख से दुःखी हूँ और रो रहा हूँ मेरे भाग्य में उस ' बुद्ध ' की पूजा करना नही बदा है । " जब राजा ने असित ऋषि और उसके भानजे नाळक ( नरदत्त ) को श्रेष्ठ भोजन से संतर्पित किया और वस्त्र दान दे उनकी परिक्रमा कर वन्दना की । जब असित ने अपने भानजे नाळक को कहा , " नरदत्त ! जब कभी तुम्हें यह सुनने को मिले कि यह बालक ' बुद्ध ' हो गया है तो जाकर शरण ग्रहण करना । यह तेरे सुख , कल्याण और प्रसन्नता के लिये होगा । " इतना कहकर असित ने राजा से विदा ली और अपने आश्रम चला गया ।

Sunday, April 26, 2020

बुद्ध का जन्म

जन्म

    सिद्धार्थ गौतम ने शुद्धोदन के घर में जन्म ग्रहण किया था । उनके जन्म की कया इस प्रकार है । शाक्य - राज्य के लोग आषाढ़ के महीने में एक महोत्सव मनाया करते थे । इस उत्सव में क्या राजा , क्या प्रजा सभी सम्मिलित होते थे । सामान्य रूप से यह महोत्सव सात दिन तक मनाया जाता था । एक बार महामाया ने इस उत्सव को बड़े ही आमोद - प्रमोद के साथ बद्दी ही शान - शौकत के साय , फूलो के साथ और सुगन्धियों के साथ मनाने का निश्चय किया । हाँ उसमें सुरामेरय आदि नशीली वस्तुओं का सर्वधा परित्याग था । सातवें दिन वह प्रातःकाल उठी । सुगन्धित जल से स्नान किया । चार लाख कार्षापणों का दान दिया । अच्छे से अच्छे गहने - कपड़े पहने । अच्छे से अच्छे खाने खाये । व्रत रखे । तदनन्तर वह खूब सजे - सजाये शयानागार में सोने के लिये चली गई । उस रात शुद्धोदन और महामाया निकट हुए और महामाया ने गर्भ धारण किया । राजकीय शय्या पर पड़े उसे नीद आ गई । निद्रा - ग्रस्त महामाया ने एक स्वप्न देखा । उसे दिखाई दिया कि चतुर्दिक महाराजिक देवता उसकी शय्या को उठा ले गये हैं और उन्होने उसे हिमवन्त प्रदेश में एक शाल - वृक्ष के नीचे रखा दिया है । वे देवता पास खड़े है। तब चतुर्दिक महाराजिक देवताओं की देवियां वहां आई और उसे उठाकर मानसरोवर ले गई । उन्होने उसे स्नान कराया , स्वच्छ वस्त्र पहनाये , सुगन्धियों का लेप किया और फूलों से ऐसा और इतना सजाया कि वह किसी दिव्यात्मा का स्वागत कर सकें । तब सुमेध नाम का एक बोधिसत्व उसके पास आया और उसने प्रश्न किया , " मैने अपना अन्तिम जन्म पृथ्वी पर धारण करने का निश्चय किया है , क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था - " बड़ी प्रसन्नता से । " उसी समय महामाया देवी की आँख खुल गई । 

       दूसरे दिन महामाया ने शुद्धोदन से अपने स्पवन की चर्चा की । इस स्वप्न की । व्याख्या करने में असमर्थ राजाने स्वप्न - विद्या में प्रसिद्ध आठ ब्राह्मणों को बुलावा भेजा । उनके नाम थे राम , ध्वज , लक्ष्मण , मन्त्री , कोड भोज , सुयाम और सुदत्त । राजा ने उनके योग्य स्वागत की तैयारी की । उसने जमीन पर पुष्पवर्षा कराई और उनके लिये सम्मानित आसन बिछयायें । उसने ब्राह्मणों के पात्र चांदी - सोने से भर दिये और उन्हें घी , मधु , शक्कर बढ़िया चावल दूध से पके पकवानों से संतर्पित किया । जब ब्राह्मण खा - पीकर प्रसन्न हो गये , शुद्धोदन ने उन्हे महामाया का स्वप्न कह सुनाया और पूछा - " मुझे इसका अर्थ बताओं  " ब्राह्मणों का उत्तर था , " महाराज | निश्चिन्त रहें । आपके यहाँ एक पुत्र होगा । यदि वह घर में रहेगा तो वह चक्रवर्ती राजा होगा ; यदि गृह - त्याग कर संन्यासी होगा । तो वह बुद्ध बनेगा - संसार के अन्धकार का नाश करने वाला । "  पात्र में तेल धारण किये रहने की तरह महामाया बोधिसत्व को दस महीने तक अपने गर्भ में धारण किये रही । समय समीप आया जान उसने अपने मायके जाने की इच्छा प्रकट की । अपने पति को सम्बोधित करके उसने कहा - " मैं अपने मायके देवदह जाना चाहती हूँ । शुद्धोदन का उत्तर था - " तुम जानती हो कि तुम्हारी इच्छा की पूर्ति होगी । " कहारों के कन्धो पर ढोई जाने वाली सुनहरी पालकी में बिठया कर अनेक सेवक - सेविकाओं के साथ शुद्धोदन ने महामाया को उसके माय भिजवा दिया ।  देवदह के मार्ग में महामाया को शाल - वृक्षो के एक उद्यान - वन में से गुजरना था , जिसके कुछ वृक्ष पुष्पित थे कुछ अपुष्पित । यह लुम्बिनी - वन कहलाता था । जिस समय पालकी लुम्बिनी - वन से गुजर रही थी , सारा लुम्बिनी - वन दिव्य चित - लता की तरह अथवा किसी प्रतापी राजा के सुसज्जित बाजार जैसा प्रतीत होता था । जह से वृक्षों की शाखाओं के छोर तक पेड़ फलो और फूलों से लदे थे । नाना रंग के भ्रमर - गण गुजार कर रहे थे । पक्षी चहचहा रहे थे । यह मनोरम दृश्य देखकर महामाया के मन में इच्छा उत्पन्न हुई कि वह कुछ समय वहाँ रहे और क्रीडा करे । उसने पालकी ढोने वालों को आज्ञादी कि वह उसकी पालकी को शाल - उद्यान में ले चले और वहाँ प्रतीक्षा करें । महामाया पालकी से उतरी और एक सुन्दर शाल - वृक्ष की ओर बड़ी । मन्द पवन वह रहा था , जिससे वृक्ष की शाखायें ऊपर - नीचे हिल डोल रही थी । महामाया ने उनमें से एक को पकड़ना चाहा । भाग्यवश एक शाखा काफी नीचे झुक गई । महामाया ने पंजों के बल खड़ी होकर उसे पकड़ लिया। तुरंत शाखा ऊपर की ओर उठी और उसका हल्का सा झटका लगने से महामाया को प्रसव - वेदना आरम्भ हुई । उस शाल - वृक्ष की शाखा पकड़े खड़े ही खड़े महामाया ने एक पुत्र को जन्म दिया । 
बुद्ध का जन्म, भगवान गौतम बुद्ध का जन्म
बुद्ध का जन्म

    
     ५६३ ई. पु. में वैशाख पूर्णिमा के दिन बालक ने जन्म ग्रहण किया । शद्धोदन और महामाया का विवाह हुए बहुत समय बीत गया था । लेकिन उन्हें कोई सन्तान नही हुई थी । आखिर जब पुत्र - लाभ हुआ तो न केवल शुद्धोदन आर उसक परिवार द्वारा बल्कि सभी शाक्यों द्वारा पुत्र जन्मोत्सव बड़ी ही शान - बान और बड़े हा ठाठ - वाट के साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मनाया गया । बालक के जन्म के समय अपनी बारी से , शद्धोदन पर कपिलवस्तु का शासन करने की जिम्मेदारी थी । वह ' राजा ' कहलाया , और इसीलिये स्वाभविक तौर पर बालक भी राजकुमार । 

भगवान बुद्ध के पूर्वज

 पूर्वज
      शाक्यों की राजधानी का नाम कलिपवस्तु था । हो सकता है कि इस नगर का यह नाम महान बुद्धिवादी मुनि कपिल के ही नाम पर पड़ा हों । कपिलवस्तु में जयसेन नाम का एक शाक्य रहता था । सिंह - हनु उसका पुत्र था । सिंह - हनु का विवाह कच्चाना से हुआ था । उसके पांच पुत्र थे । शुद्धोदन , धौतोदन , शुक्लोदन , शाक्योदन तथा अमितोदन । पांच पुत्रों के अतिरिक्त सिंह - हनु की दो लडकियाँ थी - अमिता तथा प्रमिता । परिवार का गोत्र आदित्य था । शुद्धोदन का विवाह महामाया के साथ हुआ था । उसे पिता का नाम अत्रजन तथा और माता का सुलक्षणा । अत्रजन कोलिय था और देवदह नाम की बस्ती में रहता था । शुद्धोदन बड़ा योद्धा था । जब शुद्धोदन ने अपनी वीरता का परिचय दिया तो उसे एक और विवाह करने की अनुमति मिल गई । उसने महाप्रजा - पति को चुना । महाप्रजापति महामाया की बड़ी बहन थी । शुद्धोदन बड़ा घनी आदमी था । उसके पास बहुत बड़े - बड़े खेत थे और नौकर - चाकर भी अनगिनत थे । कहा जात है कि अपने खेतों को जोतने के लिये उसे एक हजार हल चलवाने पड़ते थे । वह बड़े अमन - चैन की जिन्दगी बसर करता था । उसके कई महल थे ।

Friday, April 24, 2020

भगवान बुद्ध और उनका धर्म

 कुल

    ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उत्तर भारत सर्व - प्रभुत्व सम्पन्न एक राज्य न था । देश अनेक छोटे बड़े राज्यों में बँटा हुआ था। इनमें से किसी राज्य पर एक राजा का अधिकार था , किसी किसी पर एक राजा का अधिकार न था । राज्य किसी एक राजा के अधीन थे उनकी संख्या सोलह थी । उनके नाम थे अंग , मगध , काशी , कौशल , वज्जि ( वृज्जि ) , मल्ल , चेदि , वत्स , कुरू , पत्रचाल , मत्स्य , सौरसेन , अष्मक , अवन्ति , गन्धार तथा कम्बोजा। जिन राज्यों में किसी एक ' राजा ' का आधिपत्य न था , वे थे कपिलवस्तु के शाक्य , पावा तथा कुसीनारा के मल्ल , वैशाली के लिच्छवि , मिथिला के विदेह , रामगाम के कोलिये , अल्लकप्प के बुलि , केसपुत्त के कालाम, कलिंग , पिप्पलवन के मौर्य , तथा भळा ( भर्ग ) जिनकी राजधानी सिसुमारगिरी थी । जिन राज्यों पर किसी एक ' राजा ' का अधिकार था वे जनपद कहलाते थे और जिन राज्यों पर किसी एक ' राजा ' का अधिकार न था वे ' संघ ' या ' गण ' कहलाते थे । कपिलवस्तु के शाक्यों की शासन - पद्धति के बारे में हमें विशेष जानकारी नहीं है । हम नहीं जानते कि वहाँ प्रजातन्त्र था अथवा कुछ लोगो का शासन था। इतनी बात हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि शाक्यों के जनतन्त्र में कई राज - परिवार थे और वे एक दूसरे के बाद क्रमश: शासन करते थे । राज - परिवार का मुखिया राजा कहलाता था । सिद्धार्थ गौतम के जन्म के समय शुद्धोदन की ' राजा ' बनने की बारी थी । शाक्य राज्य भारत के उत्तर - पूर्व कोने में था । यह एक स्वतन्त्र राज्य था । लेकिन आगे चलकर कोशल - नरेश ने इसे अपने शासन - क्षेत्र में शामिल कर लिया था । इस ' अधिराजिक - प्रभाव - क्षेत्र ' में रहने का परिणाम यह था कि कोशल - नरेश की स्वीकृति के बिना शाक्य - राज्य स्वतन्त्र रीति से अपने कुछ राजकीय अधिकारों का उपयोग न कर सकता था । उस समय के राज्यों में कोशल एक शक्तिशाली राज्य था । मगध - राज्य भी ऐसा ही था । कोशल - नरेश प्रसेनजित और मगध - नरेश बिम्बिसार सिद्धार्थ गौतम के समकालीन थे ।

महात्मा फुलेंनी केलेले कार्याचा थोडक्यात आढावा


  • १८४८ साली  महात्मा फुले यांनी पुणे येथे बुधवार पेठेतील भिडे वाड्यात मुलींची पहिली शाळा सुरू केली.
  • जुलै १८५१ मध्ये बुधवार पेठेत मुलींची दुसरी शाळा सुरू केली.आणि सप्टेंबर १८५१ मध्ये रास्ता पेठेत मुलींची तिसरी शाळा सुरू केली.
  • १८५२ चिपळूणकर वाड्यात अस्पृश्यांच्या मुलांसाठी शाळा आणि पूना लायब्ररीची स्थापना केली.
  • १८५३ मध्ये "महार मांग लोकांसाठी विद्या शिकवणारी मंडळी'' या नावाची संस्था पुण्यात स्थापन केली. ( या कार्यास दक्षिण प्राईज फंडातून आर्थिक सहाय्य मिळाले )
  • १८५५  मध्ये महात्मा फुले यांनी प्रौढांसाठी देशातली पहिली रात्र शाळेची स्थापना केली.
  • १८६० मध्ये विधवा पुनर्विवाह पुरस्कार व त्यासाठी सहाय्य.
  • १८६३ साली महात्मा फुलेंनी स्वतःच्या घरी बालहत्या प्रतिबंधक गृह सुरू केले.
  • पुण्यातील गोखल्यांच्या बागेत १८६४ साली शेणवी जातीतील पहिला पुनर्विवाह घडून आणला.
  • अस्पृश्य लोकांसाठी १८६८ मध्ये महात्मा फुले यांनी आपले स्वतःच्या घरचे पाण्याचे हौद खुले केले.
  • २४सप्टेंबर १८७३ ला पुण्यामध्ये सत्यशोधक समजाची स्थापना केली.
  • रानडे यांनी १८७५ साली पुण्यात दयानंद सरस्वती मिरवणूक काढली. त्यावेळी  महात्मा फुलेंनी सहकार्य केले.
   
        महात्मा जोतिराव गोविंदराव फुले (११ एप्रिल १८२७ - २  नोव्हेंबर १८९०) हे एक भारतीय सामाजिक कार्यकर्ते, विचारवंत, जातीविरोधी समाजसुधारक आणि महाराष्ट्रातील लेखक होते.  अस्पृश्यता निर्मूलन आणि जातीव्यवस्था निर्मूलन आणि महिला मुक्ती यासारखे त्यांचे कार्य अनेक क्षेत्रात विस्तारले.  ते मुख्यतः महिला आणि निम्न जातीच्या लोकांना शिक्षण देण्याच्या प्रयत्नांसाठी ओळखले जातात.  ते आणि त्यांची पत्नी सावित्रीबाई फुले हे भारतातील महिला शिक्षणाचे प्रणेते होते.  सर्व धर्म आणि जातीतील लोक या संघटनेचा एक भाग बनू शकले ज्याने उत्पीडित वर्गाच्या उन्नतीसाठी काम केले.  महाराष्ट्रातील समाजसुधारणेच्या चळवळीतील फुले हे महत्त्वाचे व्यक्तिमत्व मानले जाते

Tuesday, April 21, 2020

कार्ल मार्क्सचा सिद्धांत

कार्ल मार्क्सचा सिद्धांत

        आता आपण कार्ल मार्क्सने मुळात प्रतिपादन केल्याच्या तत्त्वांचे विवेचन करू ( त्याच्या तत्त्वांकडे वळू या ) . कार्ल मार्क्स हा आधुनिक समाजवादाचा अथवा साम्यवादाचा जनक आहे यात शंका नाही . परतु केवळ समाजवादाचा सिद्धांत प्रतिपादन करण्यात त्याला स्वारस्य नव्हते . ती गोष्ट त्याच्याही फार पूर्वी इतरांनी केली होती . मार्क्सला त्याचा समाजवाद  वैज्ञानिक होता हे सिद्ध करण्यात अधिक स्वारस्य होते . त्याची चळवळ भांडवलदारांविरुद्ध जशी होती तशीच ती ज्यांना त्याने स्वप्नरंजित किंवा अव्यावहारिक समाजवादी म्हटले त्यांच्याविरुद्धही होती . आपला समाजवादाचा प्रकार हा वैज्ञानिक असून स्वप्नरंजित नाही , हे आपले म्हणणे प्रस्थापित करणे , यापेक्षा मार्क्सने प्रतिपादन केलेल्या सर्व सिद्धांतांचा अन्य कोणताही हेतू नव्हता .
      ' वैज्ञानिक समाजवादा ' द्वारे कार्ल मार्क्सला जे अभिप्रेत होते ते हे की , त्याचा समाजवादाचा प्रकार हा अटळ आणि अपरिहार्य आहे आणि समाज त्या दिशेने मार्गक्रमण करीत आहे व त्याचा मार्ग कोणीही रोखू शकत नाही . आपले हे नवे आणि विचारसरणी ( म्हणणे ) सिद्ध करण्यासाठी मार्क्सने विशेषतः ( कष्ट घेतले ) परिश्रम केलेले आहेत .
       मार्क्सची विचारसरणी ( म्हणणे ) पुढील सिद्धांतांवर आधारलेली आहे ती अशी -
१ . तत्त्वज्ञानाचा हेतू ( जगाची पुनर्रचना करणे हा असून ) विश्वाचे उगमस्थान काय याचे स्पष्टीकरण करणे हे नसून विश्वाचे पुनर्निर्माण करणे हा आहे .
२ . आर्थिक शक्ती हीच मुख्यतः इतिहास घडविण्यात जबाबदार असते.
३ . समाजाची मालक व कामगार या दोन वर्गामध्ये विभागणी झालेली आहे .
४ . या दोन वर्गामध्ये नेहमीच वर्गकलह ( चालू आहे ) सुरू असतो .
५ . मालक वर्गाद्वारे मजूर वर्गाचे नेहमीच शोषण होत असते . कामगारांच्या श्रमाचे फळ असलेल्या नफ्यांचे ( Profit ) अथवा ' अतिरिक्त मूल्या ' चा मालक वर्गाद्वारे दुरुपयोग होत असतो .
६ . ही पिळवणूक उत्पादन साधनांचे राष्ट्रीयीकरण करून म्हणजे ( खाजगी ) व्यक्तिगत संपत्ती नष्ट करून ( संपुष्टात आणता येईल ) , नष्ट करता येईल .
७ . मालक वर्गाद्वारे मजूर वर्गाची पिळवणक हीच श्रमिक वर्गाला अधिकाधिक दुर्बल आणि दारिद्रय बनवीत आहे .
८ . कामगारांमधील ह्या वाढती दुर्बलता आणि दारिद्र्याचा परिणाम म्हणून कामगारांमध्ये क्रांतिकारी भावना निर्माण होत आहे आणि त्यामुळे वर्गकलहाचे रूपांतर वर्गलढ्यात होत आहे .
९ . कामगार हे मालकापेक्षा संख्येने जास्त असल्यामुळे ते राज्यसत्ता हस्तगत करतील व स्वतःचे राज्य प्रस्थापित करतील हे अटळ आहे . ( यालाच त्याने कामगारवर्गाची हकूमशाही असे म्हटले आहे . )
१० . या क्रांतीला कुणीही रोखू शकत नाही . त्यामुळेच समाजवाद हा अटळ आहे .
        मला आशा आहे की मार्क्सच्या समाजवादाची मूलभूत विचारसरणी मी अचूकपणे मांडलेली आहे .

बुद्धाचा सिद्धांत

बुद्धाचा सिद्धांत
        सर्वसाधारणपणे बुद्धाचा अहिंसेच्या तत्त्वांशी संबंध जोडण्यात येतो . त्याच्या शिकवणुकीचा तो आदि व अंत असल्याचे मानले जाते . बुद्धाने शिकवले ते अहिंसेच्याही फार पलीकडचे , अत्यंत व्यापक आहे , हे क्वचितच कोणाला माहीत असेल , म्हणून त्याची तत्वे तपशीलवार मांडणे आवश्यक आहे . त्रिपिटकाच्या वाचनातून मला जी तत्त्वे समजली ती मी खाली नमूद करीत आहे .
१ . स्वतंत्र समाजासाठी धर्म आवश्यक आहे .
२ . प्रत्येक धर्म स्वीकारण्यासारखा असतोच असे नाही .
३ . धर्माचा जीवनाच्या तथ्यांशी आणि वास्तविकतेशी संबंध असला पाहिजे . त्याचा ईश्वर किंवा आत्मा , स्वर्ग किंवा पृथ्वी यांविषयीच्या सिद्धांतांशी व कल्पनांशी संबंध असता कामा नये .
४ . ईश्वराला धर्माचा केंद्रबिंदू मानणे अयोग्य आहे .
५ . आत्म्याची मुक्ती हा धर्माचा केंद्रबिंदू मानणे चूक आहे .
६ . प्राण्यांचा बळी देणे हा धर्माचा केंद्रबिंदू मानणे चूक आहे . ७ . खरा धर्म माणसाच्या मनात बसत असतो , शास्त्रात नव्हे . ८ . मनुष्य व नीती हा धर्माचा केंद्रबिंदू असला पाहिजे . जर तसे नसेल तर धर्म ही एक क्रूर अंधश्रद्धा ठरेल .
९ . जगात ईश्वर नसल्यामुळे नीती ही केवळ जीवनाचा आदर्श असणे पुरेसे नाही तर जीवनाचा नियम अथवा कायदा असावा.
१० . धर्माचे कार्य जगाची पुनर्रचना करणे व त्याला सुखी बनविणे हे आहे , त्याचा आरंभ वा अंत याचे स्पष्टीकरण करणे नव्हे .
११ . हितसंबंधांच्या कलहामुळे जगात दुःख आहे व तो सोडवण्याचा एकमेव मार्ग म्हणजे अष्टांग मार्गाचे अनुसरण होय .
१२ . संपत्तीची खाजगी मालकी एका वर्गाला सत्ता तर दुसऱ्या वर्गाला दुःख देते .
१३ . समाजाच्या भल्यासाठी ह्या दुःखाचे कारण दूर करून ते नष्ट केले जाणे आवश्यक आहे .
१४ . सर्व मानव समान आहेत .
१५ . माणसाचे मूल्यमापन त्याच्या जन्माने नसून त्याच्या कर्तृत्वाने होते .
१६ . महत्त्वाचे काय तर उच्च आदर्श ; उच्च घराण्यातील जन्म नव्हे .
१७ . सर्वांबद्दलची मैत्री अथवा मित्रत्व कधीच सोडता कामा नये . आपण त्यासाठी आपल्या शत्रूचेदेखील ऋणी असले पाहिजे .
१८ . प्रत्येकाला विद्या प्राप्त करण्याचा , अध्ययन करण्याचा हक्क आहे . माणसाला जगण्यासाठी जशी अन्नाची आवश्यकता आहे त्याप्रमाणे विद्येचीही आवश्यकता आहे .
१९ . सदाचरणाशिवाय ज्ञान हे घातक होय .
२० . कोणतीही गोष्ट अंतिम ( अस्खलनशील ) नाही . कोणतीही गोष्ट कायम बंधनकारक नाही . प्रत्येक गोष्ट चौकशी व परीक्षण यांस पात्र आहे .
२१ . कोणतीही गोष्ट अंतिम नाही .
२२ . प्रत्येक गोष्ट कार्यकारणभावाच्या नियमाला धरून आहे . २३ . कोणतीही गोष्ट कायम अथवा सनातन नाही . प्रत्येक गोष्ट परिवर्तनशील ( बदलास पात्र ) आहे . अस्तित्व हे नेहमीच घडत असते . किंबहुना परिवर्तनशीलता हाच जगाचा नियम होय .
२४ . युद्ध जर सत्यासाठी व न्यायासाठी नसेल तर ते घातक आहे .
२५ . विजेत्याची जितांबाबत काही कर्तव्ये आहेत .
        संक्षिप्त स्वरूपात बुद्धाची तत्त्वे ही आहेत . फार प्राचीन काळात जरी सांगितलेली असली तरीही आजही ती तितकीच नवीन वाटतात . ( किती प्राचीन , पण किती नवीन ! )

लेखक :- डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर

Monday, April 20, 2020

बुद्ध आणि कार्ल मार्क्स

बुध्द आणि कार्ल मार्क्स
     कार्ल मार्क्स व बुद्ध यांच्यामधील तुलना विनोद म्हणूनही मानली जाईल. त्यात आश्चर्य वाटण्याचे कारण नाही . मार्क्स व बुद्ध यांच्यात २३८१ वर्षांचे अंतर आहे . बुद्ध इ . स . पूर्व ५६३ मध्ये जन्माला आले व कार्ल मार्क्स इ . स . १८१८ मध्ये. कार्ल मार्क्स हा एका नव्या तत्त्वज्ञानाचा नव्या राज्यव्यवस्थेचा- एका नव्या अर्थशास्त्रीय पद्धतीचा शिल्पकार असल्याचे समजण्यात येते. दुसऱ्या बाजूस बुद्ध हा ज्याचा राज्यशास्त्राशी वा अर्थशास्त्राशी काहीही संबंध नाही अशा धर्माचा संस्थापक , यापेक्षा आणखी कोणीही नाही, असे मानले जाते. अशा प्रदीर्घ कालखंडाचे अंतर असलेल्या व वेगवेगळी विचारक्षेत्रे व्यापलेल्या या दोन व्यक्तिमत्त्वामधील तुलना अथवा विरोध विचारार्थ मांडणारे ' बुद्ध आणि कार्ल मार्क्स ' हे या निबंधाचे शीर्षक विचित्र वाटणे स्वाभाविक आहे. मार्क्सवाद्यांना साहजिक त्याचे हसू येईल आणि मार्क्स व बुद्ध यांचा एकाच पातळीवर परामर्श घेण्याच्या कल्पनेची ते कुचेष्टा करतील. मार्क्स किती आधुनिक व बुद्ध किती प्राचीन ! मार्क्सवादी म्हणतील की, बुद्धाची त्यांच्या गुरुशी तुलना करता बुद्ध निव्वळ आदिम ठरणे क्रमप्राप्त आहे . अशा दोन व्यक्तींमध्ये कसली तुलना होऊ शकणार ? मार्क्सवादी बुद्धाकडून काय शिकू शकणार ? बुद्ध मार्क्सवाद्यांना काय शिकवू शकणार ? काहीही असो, या दोहोंमधील तुलना आकर्षक व बोधपर आहे. दोहोंचेही वाचन झाले असल्यामुळे व दोहोंच्या तत्त्वज्ञानात रस असल्यामुळे त्यांच्यातील तुलना करण्याचे काम माझ्यावर येऊन पडते . जर मार्क्सवाद्यांनी त्याचे पूर्वग्रह मागे सारले आणि बुद्धाचा अभ्यास केला व त्याची भूमिका काय होती हे समजून घेतले तर मला खात्री वाटते की , ते त्यांचा रोख बदलतील. बुद्धाचा उपहास करण्याचे त्यानी ठरवले असल्याने ते त्याची प्रार्थना करू लागतील अशी अपेक्षा करणे अर्थात अवाजवी होईल . परंतु एवढे मात्र म्हणता येऊ शकेल की , त्यांनी दखल घ्यावी असे , त्यांच्या योग्यतेचे बुद्धाच्या शिकवणुकीतून काहीतरी आहे , हे त्यांच्या लक्षात येईल .
                              

नागरिकांचे मूलभूत अधिकार

नागरिकांचे मूलभूत अधिकार
१ )भारतीय संघराज्याचे संविधान खालील मूलभूत अधिकार मान्य करील .
भारतीय संघराज्याच्या अथवा जेथे ते राहतात त्या राज्याच्या सरहद्दीत जन्म झाला असेल अथवा ज्याचा स्वाभाविकपणे विकास झाला असेल ते सर्व भारतीय संघराज्याचे तसेच त्या राज्याचे नागरीक आहेत.
     एखादे पद, जन्म, कुटुंब , धर्म अथवा धार्मिक परंपरा व रुढी यामुळे प्राप्त झालेला विशेषाधिकार अथवा हीनपणा नष्ट करण्यात येत आहे .
२ ) कोणतेही राज्य असा कायदा करणार नाही अथवा अशी परंपरा लादणार नाही ज्यामुळे नागरिकाच्या उन्मुक्तेचा          ( immunities ) अथवा सवलतींचा संकोच होईल अथवा कोणत्याही व्यक्तीचे जीवित , वित्त व स्वातत्र्याचे हक्क कायदेशीर प्रक्रिये वाचून हिरावले जाईल अथवा कोणत्याही व्यक्तीला त्या राज्याच्या हद्दित कायद्याचे समान संरक्षण नाकारले जाईल.
 3 ) सर्व नागरिक कायद्याचे दृष्टीने समान आहेत व सर्वांना नागरिकत्वाचे समान अधिकार आहेत .
      सद्यस्थितीत अस्तित्वात असलेला कोणताही कायदा , नियम , आदेश , रुढी अथवा विधी विश्लेषण यांचेमुळे एखाद्या नागरिकास दंड , गैरसोय अथवा बंधन निर्माण केले गेले असेल अथवा पक्षपात होत असेल तर असे सर्व कायदे (वगैरे) हे संविधान अंमलात आल्यापासून रद्द ठरतील.
४ ) सामाजिक प्रतिष्ठेचा विचार न करता सर्व वर्गाना लागू असलेल्या कायद्यातर्गत तरतुदींचा अपवाद वगळता , व्यक्तीला राहण्याच्या अथवा अन्य सवलतीच्या , उपभोगापासून , खाणावळीच्या सोयीपासून , शैक्षणिक संस्थामधील प्रवेशांपासून, रस्ते, पायवाटा, बोळी, तलाव , विहीरी आदि पाणवठ्याची स्थळे, भूमी , आकाश आणि समुद्रावरील वाहने , थिएटर अथवा सार्वजनिक मनोरंजनाची स्थळे, जी लोकांकरिता, लोकानी चालवलेली अथवा लोकांच्या उपयोगाची आहेत, या साऱ्यांचा वापर करण्यापासून जर कुणी वंचित केले तर अशी व्यक्ती गन्हेगार ठरेल .
५) लोकांनी अथवा लोकांकरिता चालविण्यात येणाऱ्या सर्व (सार्वजनिक) संस्था, वाहन आणि सुखसोई यात सर्व नागरिकांना प्रवेश करण्याचा समान अधिकार राहील.
६) कोणत्याही सार्वजनिक पदाकरिता अथवा व्यापार वा धंद्या करिता कोणत्याही नागरिकास त्याच्या धर्म, जात, पंथ, लिंग अथवा सामाजिक स्तर या बाबींमुळे अपात्र ठरवता येणार नाही.
७) (एक) प्रत्येक नागरिकास भारताच्या कोणत्याही भागात राहण्याचा अधिकार राहील. सार्वजनिक सुरक्षितता आणि नैतिकता या व्यतिरिक्त अन्य कोणत्याही कारणाने  नागरिकांचा राहण्याचा अधिकार संकुचित करणार कायदा करता येणार नाही.
    (दोन) प्रत्येक नागरिकास त्याच्यामुळे राज्यातून मिळालेल्या नागरिकत्वाच्या प्रमाण पत्राच्या आधारे भारताच्या अन्य कोणत्याही राज्यात वसाहत करता येईल. अशा नागरिकास;याचा खंडातील उपखंड (चार) मध्ये दर्शविलेल्या कारणा व्यतिरिक्त अन्य कोणत्याही मुद्द्यावर वसाहत करण्याची परवानगी ना करिता येणार नाही अथवा दिलेली परवानगी परत घेता येणार नाही.
    (तीन) वसाहत करू इच्छिणाऱ्या नागरिकांवर अन्य नागरिकांना द्याव्या लागणाऱ्या करांच्या निर्बंध व्यतिरिक्त अन्य कोणत्याही विशेष कर त्या राज्याने लादू नये. वसाहतीच्या परवानगी करिता लागणारे जास्तीत जास्त शुल्क केंद्र विधि मंडळ कायदे करून निश्चित करील.
     (चार) वसाहतीची परवानगी राज्य सरकार द्वारे खालील व्यक्तिंना नाकारली जाऊ शकेल किंवा मागे घेण्यात येईल.
      अ) धंदेवाईक गुन्हेगार.
      ब) त्या राज्यातील जातीय समतोल बिघडण्याच्या हेतूने ज्यांना वसाहत करायची आहे. असे लोक
     क) ज्या राज्यात वसाहत करायची आहे त्या राज्यातील अधिकाऱ्यांना जे असे सिद्ध करून देऊ शकत नाहीत की, त्यांना पोट भरण्याचे खात्रीचे साधन आहे आणि ते लोकांच्या भिक्षेवर जगत नाहीत अथवा तेथील लोकांच्या दातृत्वावर कायमचे ओझे होणार नाहीत.
     ड) ज्यांच्यामुळे राज्यातील सरकारला विनंती करून देखील ज्यांना योग्य ती मदत करण्यास ते राज्य तयार नाही.
    (पाच) अर्जदार काम करण्यास सुदृढ असेल, त्यांचा मूळ राज्यात लोकांच्या भीके वर जगत नसेल आणि बेकार राहणार नाही असा जामीन देण्यास तयार असेल तर त्यालाच वास्तव करण्यास सशर्त परवानगी देण्याचा विचार व्हावा.
    (सहा) प्रत्येक हद्दपारीला (केंद्र) सरकारची अनुमती हवी.
    (सात) कायम वसाहत व तात्पुरते वास्तव्य यातील भेद केंद्रीय विधानमंडळ विशद करील त्याच वेळी व्यक्तीच्या तात्पुरत्या वास्तव्याच्या काळात त्याचे राजकीय व नागरिकत्वाचे अधिकार नियमित करणारे निर्बंध निश्चित करील.
 ८) भारताच्या कोणत्याही भागात, एखाद्या जात जमातीवर होणार्‍या अत्याचारापासून तसेच अंतर्गत हिंसाचार व गुंडगिरी पासून संरक्षण करण्यास ची केंद्र सरकार हमी घेईल.  
 ९) एखाद्या व्यक्तीस वेट बिगारी करण्यास लावणे अथवा मनाविरुद्ध काम करण्यासाठी शक्ती करणे हा गुन्हा ठरेल.   १०) लोकांचे जीवित राहते घर, वित्त व मालमत्ता यांची अकारण झडती व जप्ती यांपासून संरक्षण मिळणाऱ्या हक्कांचे उल्लंघन होणार नाही, तसेच शपथेवर एखादे संभाव्य कारण दाखवून विशिष्ट जागेचा, तेथील जप्त करण्याच्या वस्तूचा अथवा व्यक्तीचा उल्लेख केल्यावाचून कोणत्याही झडती चा व जप्तीचा वारंट काढता येणार नाही.
 ११) अज्ञान असणे, कारावास अथवा वेडेपणा याच व्यतिरिक्त अन्य कोणत्याही सबबीखाली नागरिकांचा मतदानाचा अधिकार नाकारता येणार नाही. अथवा मर्यादित करता येणार नाही.
 १२) सार्वजनिक हित व नैतिकता या दोन बाबी वगळता अन्य कोणत्याही सबबीखाली भाषण स्वातंत्र्य, मृद्रण, संघटना स्वतंत्र व सभा- संमेलनाचे स्वतंत्र, यांचा अधिक्षेप करणारा कोणताही कायदा करता येणार नाही.
 १३) गतकाळापासून लागू होणारा कायदा मंजूर करता येणार नाही.
 १४)  सार्वजनिक हित आणि नैतिकता यास अनुसरून आपल्या धर्माचा आचार, प्रचार व धर्मांतर करण्याची, तद्वत आपल्या सद्सद्विवेक बुद्धी प्रमाणे वागण्याची हमी प्रत्येक नागरिकाला राज्य सरकार देईल.
 १५) विशिष्ट धर्म संस्थेची सभासद होण्यास, विशिष्ट धर्माच्या आज्ञापालन करण्यास अथवा विशिष्ट धार्मिक कृत्ये करण्यास कोणत्याही व्यक्तीवर जबरदस्ती करता येणार नाही.
    उपरिनिद्रीष्ट तरतूदच अनुसरूनच पालक व माता-पित्यांना आपल्या मुलांना त्यांच्या वयाच्या सोळाव्या वर्षापर्यंत धार्मिक शिक्षण देण्याची मुभा राहील.
  १६) एखादी व्यक्ती विशिष्ट जातीची पंथाची वा धर्माची आहे या कारणास्तूव त्या व्यक्तीला कोणत्याही दंड देता येणार नाही. तसेच कोणत्याही व्यक्तीस एखाद्या जातीचा पंथाचा अथवा धर्माचा असण्याचा सबबीखातर  नागरिकत्वाची जबाबदारी नाकारता येणार नाही.
  १७) राज्याला कोणताही धर्म, राजधर्म म्हणून मान्यता देता येणार नाही.
  १८) कोणत्याही धर्माच्या लोकांना संघटना स्थापन करण्याचे स्वतंत्र राहील. तसेच त्यांची इच्छा असल्यास काही अटींवर आपले एक महामंडळ (निगमनिकाय) (corporate body)  स्थापन करण्याचा कायदा करण्यासाठी राज्य सरकारला विनंती करण्याचा त्यांना अधिकार राहील.
  १९) सर्वांना लागू असलेल्या कायद्या अंतर्गत, प्रत्येक धार्मिक संघटनेला आपल्या संघटनेचे नियमन व प्रशासन करण्याचे स्वतंत्र राहील.
  २०) जर निगमन (incorporation)  कायद्यात तरतूद असेल तर धार्मिक संस्था आपल्या सभासदांवर जे स्वखुशीने देण्यास तयार असतील, त्यांचेवर वर्गणी लादू शकेल.
  २१) या कलमाखाली सर्व गुन्हे दखलपात्र राहतील. ज्या तरतुदीकरिता कायदा करण्याची गरज आहे अशा तरतूदी करिता केंद्रीय विधिमंडळ कायदा करील आणि जी कृत्ते गुन्हा गणली जातील त्या कृत्याबद्दल शिक्षेची तरतूद करील.