असित का आगमन
जिस समय बालक का जन्म हुआ , उस समय हिमालय में असित नामा एक बड़े ऋषि रहते थे । असित ने सुना कि आकाश - स्थित देवता " बुद्ध " शब्द की घोषणा कर रहे है । उसने देखा कि वह अपने वस्त्रों को ऊपर उछाल - उछाल प्रसन्नता के मारे इधर - उधर घूम रहे हैं । वह सोचने लगा कि मै वहाँ क्यो नजाऊँ , जहाँ ' बुद्ध ' ने जन्म ग्रहण किया है । जब असित ऋषि ने समस्त जम्बुद्वीप पर अपनी दिव्यदृष्टि डाली , तो देखा कि शुद्धोदन के घर में एक दिव्य बालक ने जन्म ग्रहण किया है और देवताओं की भी इतनी अधिक प्रसन्नता का यही कारण है । इसलिये वह महान ऋषि असित अपने भानजे नाळक के साथ राजा शुद्धोदन के घर आये और उसके महल के द्वार पर खड़े हुए । अब असित ऋषि ने देखा कि शुद्धोदन के द्वार पर लाखों आदमियों की भीड़ एकत्रित है । वह द्वारपाल के पास गये और कहा - " अरे ! जाकर राजा से कहो कि दरवाजे पर एक ऋषि खड़े है । " द्वारपाल राजा के पास गया और हाथ जोड़कर विनती की - “ राजन् ! द्वार पर एक वृद्ध ऋषि पधारे हैं और आप से भेंट करना चाहते हैं । " राजाने असित ऋषि के बैठने के लिये आसन की व्यवस्था की और द्वार - पाल को कहा - " ऋषि को आने दो । " महल के बाहर आकर द्वारपाल ने असित से कहा " कृपया भीतर पधारें । " असित ऋषि राजा के सामने उपस्थित हुए और उसे खड़े - खड़े आशीर्वाद दिया - " राजन ! आपकी जय हो । आप चिरकाल तक जियें और अपने राज्य पर धर्मानुसार शासन करे । जब शद्धोदन ने असित ऋषि को साष्टांग दण्डवत् किया और उन्हें बैठने के लिये आसन दिया । जब उसने देखा कि असित ऋषि सुखपूर्वक आसीन है तो शद्धोदन ने कहा - " ऋषिवर ! मुझे स्मरण नही है कि इसके पूर्व आपके दर्शन हुए हों । आपके यहाँ आगमन का क्या उद्देश्यह ? आपके यहाँ पधारने का क्या कारण है ? "तब असित ऋषि ने राजा शद्धोदन से कहा " राजन् ! तुम्हें पुत्र - लाभ हुआ है । मै उसे देखने के लिय आया हूँ | " शद्धोदन बोला , " ऋषिवरा बालक सोया है । क्या आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करने की कृपा करेंग ? " ऋषि का उत्तर था , " राजन ! इस तरह की दिव्य विभुतियाँ देर तक नही सोती रहती। यह स्वभाव से ही जागरूकत होती है । " तब बालक ने ऋषि पर अनुकम्पा करके अपने जागते रहने का संकेत किया। यह देखा बालक जाग उठा है , शुद्धोदन दृढता पूर्वक दोनो हाथो में लिया और असित ऋषि के सामने आया । असित ने देखा कि बालक बत्तीस महापुरुष - लक्षणों तथा अस्सा अनु - व्यंजनों से युक्त है । उसने देखा कि उसका शरीर शुक्र और ब्रह्मा से अधिक दीप्त है और उसका तेजो मंडल उनके तेजो मंडल से लाख गुणा अधिक प्रादीप्त है उसके मुहँ से तुरन्त ये वाक्य निकला - " निस्संदेह यह अद्भूत पुरूष है । " वे अपने आसन से उठे , दोनो हाथ जोड़े और उसके पैरों पर गिर पड़े । उन्होंने बालक की परिक्रमा की और उसे अपने हाथों में लेकर विचार - मगन हो गये । असित ऋषि पुरानी भविष्यद् वाणी से परिचित थे कि जिस के शरीर में गौतम की तरह बत्तीस महापुरुष - लक्षण होंगे , वह इन दो गतियों में से एक को निश्चित रूप से प्राप्त होगा , तीसरी को नहीं । " यदि वह गृहस्थ रहेगा , तो यह चक्रवृती नरेश होगा । लेकिन वह गृह त्याग कर प्रवर्जित हो जायेगा तो वह सम्यक् सम्बुद्ध होगा । " असित ऋषिको निश्चय था । कि बालक गृहस्थ नहीं बनेगा । बालक की ओर देखकर , वह सिसकियाँ भर - भर कर रोने लगा । शुद्धोदन ने देखा कि असित ऋषि सिसकियाँ भर - भर कर रो रहा है । उसे इस प्रकार रोता देखकर , शुद्धोदन के रोंगटे खड़े हो गये । उसने असति ऋषि से निवेदन किया - " ऋषिवर ! आप इस प्रकार क्यो रो रहे है ? आंसू क्यो बहा रहे हैं ? ठंडी सांस क्यो ले रहे है ? मै समझता हूँ कि बालक का भविष्य तो निर्विघ्न ही है ? "
असित ऋषि ने राजा को उत्तर दिया - " राजन् ! मै बच्चे के लिये नही रो रहा ही इसका तो भविष्य निर्विघ्न है । मै अपने लिये रो रहा हूँ । " " ऐसा क्यो ? " शुद्धोदन ने पूछा । असित ऋषि का उत्तर था , " मै जराजार्णी हूं , क्या प्राप्त हूँ और ये बालक निश्चयात्मक रूप से ' बौधि लाभ करेगा सम्यक्समबुद्ध होगा तदनन्तर वह लोक - कल्याण के लिये आपना धर्म - चक्र प्रर्वितत करेगा , जो इससे पहले संसार में कभी प्रवर्तित नही हुआ है । " जिस श्रेष्ठ जीवन की , जिस सद्धर्भ की वह घोषणा करेगा वह आदि में कल्याणकारक होगा , मध्य में कल्याणकारक होगा और अन्त में कल्याण कारक होगा । वह अर्थ तथा व्यंजन की दृष्टि से निर्दोष होगा । वह परिशुद्ध होगा । वह परिपूर्ण होगा । " जिस प्रकार राजन् ! कभी कही इस संसार में उदुम्बर ( गुलर ) पुष्पित होता
" लेकिन राजन् ! मै उस बुद्ध को नही देख सकूँगा । इसलिये राजन् ! मैं इस दुःख से दुःखी हूँ और रो रहा हूँ मेरे भाग्य में उस ' बुद्ध ' की पूजा करना नही बदा है । " जब राजा ने असित ऋषि और उसके भानजे नाळक ( नरदत्त ) को श्रेष्ठ भोजन से संतर्पित किया और वस्त्र दान दे उनकी परिक्रमा कर वन्दना की । जब असित ने अपने भानजे नाळक को कहा , " नरदत्त ! जब कभी तुम्हें यह सुनने को मिले कि यह बालक ' बुद्ध ' हो गया है तो जाकर शरण ग्रहण करना । यह तेरे सुख , कल्याण और प्रसन्नता के लिये होगा । " इतना कहकर असित ने राजा से विदा ली और अपने आश्रम चला गया ।
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