गृह त्याग
सिद्धार्थ ने सोचा कि वह भारद्वाज के पास जाकर प्रवजित हो जायेगा । भारद्वाज का आश्रम कपिलवस्तु में ही था । तदनुसार वह अपने सारथी छन्न हो साथ लेकर और अपने प्रिय अश्व कन्यक पर चढ़कर आश्रम की ओर चला । ज्योहर वह आश्रम के समीप पहुँचा , द्वार पर ही एकत्र हुए पुरूषो और स्त्रियों ने उसे ऐसे घेर लिया मानो वह एक नयी - नवेली वधू का स्वागत कर रहे हों । जब वे उसके सामने आये , उनकी आंख्ने आश्चर्य से खुली रह गई । उन्होने बन्द कमल की तरह हाथ जोड़कर उसे नमस्कार किया । वे उसे घेरे खड़े थे । उनके हृदय भावाविष्ट थे । वे ऐसे खड़े थे कि मानो वे अपने अर्ध - खिले नेत्रों से उसका पान ही कर रहे हों । कुछ स्त्रियों ने तो यही समझा कि वह कामदेव का साकार -रूप है । क्योकि वह अपने लक्षण तथा अलंकारों से ऐसा ही अंलकृत था । कुछ दूसरी स्त्रियों ने उसकी कोमलता और ऐश्वर्य की ओर ध्यान देकर सोचा कि अपनी अमृतमयी किरणों के साथ चन्द्रमा पृथ्वी पर उतर आया है । कुछ दूसरी स्त्रियाँ उस सौन्दर्य से इतनी पराभूत थी कि वह मुँह बाये खड़ी थीं , मानो उसे निगल ही जायेंगी । वे लम्बे आश्वास ले रही थी । इस प्रकार स्त्रियां केवल उसकी ओर देख ही रही थी । न उनके मुंह में शब्द था , न चेहरे पर मुस्कराहट । वे उसे घेरे खड़ी थी और उसके प्रव्रजित होने के विश्ख्य पर आश्चर्य से विचार कर रही थी । बड़ी कठिनाई से उसने उस भीड़ में से अपने लिये रास्ता निकाला और आश्रम के द्वार में प्रवेश किया । सिद्धार्थ को यह अच्छा नहीं लगता था कि शुद्धोदन और प्रजापति गौतमी उसके प्रव्रजित होने के समय उपस्थित रहे । क्योंकि वह जानता था कि ऐसे समय वे अपने को संभाले न रख सकेंगे । लेकिन उसकी जानकारी के बिना ही वे पहले से आश्रम आ पहुँचे थे ।
ज्योती उसने आश्रम में प्रवेश किया उसने देखा कि उपस्थित मणडली में उसके माता - पिता भी है । अपने माता - पिता को वहाँ उपस्थित देखकर वह सर्वप्रथम उनके पास गया और उनका आशीर्वाद पाहा । ये भावना से इतने अधिक अभिभूत थे कि उनके मुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा था । वे लगातार रोते रहे । उन्होने उसे छाती से लगाया और आसुओ से उनका अभिषेक किया । छन्न ने कंथक को एक पेड़ से बांध दिया था और पास खड़ा था । जब उसने देखा कि शुद्धोदन और प्रजापति आँसू बहा रहे है तो वह भी भावनावश अपने आँसुओं को न रोक सका । बही कठिनाई से अपने माता - पिता से पृथक् हो सिद्धार्थ वहाँ गया जहाँ द खड़ा था । उसे वापिस घर ले जाने के लिये उसे अपने वस्त्र और गहने - कपड़े दे दिये । तब उसने सिर गुण्डवाया । ऐसा करना परिखजाक के लिये आवश्यक था । उसका चचेरा भाई महानाम परिव्राजक के योग्य वस्त्र और भिक्षापात्र के आया था । सिद्धार्थ ने उन्हे पहन लिया । इस प्रकार परिखामक का जीवन व्यतीत करने की पूरी तैयारी करके वह भरद्वाज के पास गया कि वह उसे विधिवत् प्रअजित कर दें । अपने शिष्यों की सहायता से भारद्वाज ने आवश्यक संस्कार किये और सिद्धार्थ गौतम के परिब्राज़क बनने की घोषणा कर दी । यह याद करके कि उसने शाक्य संघ के सम्मुख दोहरी प्रतिमा की थी , एक तो प्रव्रज्या लेने और दूसरे अविलम्ब ही शाक्य जनपद की सीमा से बाहर आरम्भ कर दी । जो जनरागृह आश्रम में इकट्ठा हो गया था यह असामान्य था । सिद्धार्थ गौतम की प्रव्रज्या लेने की और दूसरे अविलम्ब ही शाक्य जनपद की सीमा से बाहर हो जाने की सिद्धार्थ गौतम ने प्रव्रज्या का संस्कार समाप्त होते ही अपनी यात्रा आरम्भ कर दी । उसने कपिलवस्तु से विदा ली और अनोमा नदी की ओर क्या पीछे मुड़कर देखा तो जनता अभी भी पीछे - पीछे चली आ रही थी । उसने उन्हें रोका और कहा- " बहनो और भाइयो ! मेरे पीछे - पीछे चले आने से क्या लाभ है ? मै शाक्यों और कालियों के बीच का माहा म निपटा सका । लेकिन यदि तुम समझौते के पक्ष में जनमत तैयार कर लो , तो तुम सफल हो सकते हो । इसलिये कृपा करके वापिस लोट जाओ । " उसकी प्रार्थना सुनी तो लोग पीछे लौटने लगे । शुद्धोदन और गौतमी भी महल को वापस चले गये । सिद्धार्थ के त्यागें वस्त्रों और गहनों को देखना गौतमी के लिये असह था । उसने उन्हे एक केवल के तालाब में फिंकवा दिया । प्रव्रज्या ग्रहण करने के समय सिद्धार्थ गौतम की आयु केवल २१ वर्ष की थी । लोग उसे याद करते थे और यह कह कह कर प्रशंसा करते थे कि " यह उस कुलोत्पत्र है , यह श्रेष्ठ माता - पिता की सन्तान है , यह सम्पन्न है , यह तारूण्य के मध्य में है , यह सुन्दर शरीर और बुद्धि से युक्त है , सुख - भोग में पला है और वही अपने सम्बन्धियों से इसलिये दण्ड स्वीकार किया जिसका जिसका मतलब था ऐश्वर्य के स्थान पर दरिद्रता , सुख समृद्धि के स्थान पर भिक्षाटन , गृह - निवास के स्थान पर गृह त्याग । और यह जा रहा है जब कोई इसकी चिन्ता करने वाला नहीं , और यह जा रहा है बिना किसी भी ऐसी एक चीज को साथ लिये जिसे अपनी कह सके । “ इसका यह स्वेच्छा से किया हुआ महान् त्याग है । यह बड़ी ही वीरता और साहस का कार्य है । संसार के इतिहास में इसकी उपमा नहीं । यह शाक्य मुनि अथवा शाक्य - सिहं कहलाने का अधिकारी है । " शाक्य - कुमारी कृषा गौतमी का कथन कितना सही था । सिद्धार्थ गौतम के ही सम्बन्ध में उसने कहा था । “ धन्य है वे माता - पिता जिन्होंने ऐसे पुत्र को जन्म दिया और धन्य है वह नारी जिसका ऐसा पति है । "
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