बचपन तथा शिक्षा
जब सिद्धार्थ थोड़ा चलने - फिरने योग्य हो गया , शाक्य जनपद के मुखिया इकट्ठे हुए औ उन्होने शुद्धोदन से कहा कि बालक को ग्राम - देवी अभया के मन्दिर में ले चलना होगा ।शुद्धोदन ने स्वीकार किया और बालक को कपड़े पहना देने के लिये महाप्रजापति से कहा । जब वह उसे वस्त्र पहना रही थी । सिद्धार्थ ने अत्यन्त मधुर वाणी में अपनी मौसी से पूछा कि उसे कहाँ ले जाया जा रहा है ? जब उसे पता लगा कि उसे मन्दिर ले जाया जा रहा है तो वह मुस्कराया । लेकिन शाक्यो के रीति - रिवाज का ध्यान कर वह चला गया । आठ वर्ष की आयु होने पर सिद्धार्थ ने अपनी शिक्षा आरम्भ की । जिन्हें शुद्धोदन ने महामाया के स्वप्न की व्याख्या करने को बुलाया था और जिन्होने सिद्धार्थ के बारे में भविष्यवाणी की थी वे ही आठ ब्राह्मण उसके प्रथम आचार्य हुए । जो कुछ वे जानते थे जब वे सब सिखा चुके तब शुद्धोदन ने उदिच्च देश के उच्च कुलोत्पन्न प्रथम कोटि के भाषा - विद् तथा वैयाकरण , वेद , वेदांश तथा उपनिषदों के पूरे जानकार सब्बमिप्त को बुलावा भेजा । उसके हाथ पर समर्पण का जल सिंचन कर शुद्धोदन ने सम्बमित्त को ही शिक्षण के निमित सिद्धार्थ को सौंप दिया । वह उसका दूसरा आचार्य था । उसकी अधीनता में सिद्धार्थ ने उस समय के सभी दर्शन - शास्त्रों पर अपना अधिकार कर लिया । इसके अतिरक्ति उसने भारद्वाज से चिंत्त को एकाग्र तथा समाधिस्य करने का मार्ग सीखा लिया था । श्रारद्वाज आळार कालाम का शिष्य था । उसका अपना आश्रम कपिलवस्तु में ही था ।
आरम्भिक प्रवृत्तिया
जब कभी वह अपने पिता की जमीदारी में जाता वहाँ कृषि - सम्बन्धी कोई काम न होता , वह किसी एकान्त कोने में जाकर ध्यानारुद हो जाता । निस्सन्देह उसे सभी प्रकार की शिक्षा मिल रही थी , किन्तु साथ - साथ एक क्षत्रिय के योग्य सैनिक शिक्षण की ओर से भी उदासीनतानही दिखाई जा रही थी । शुद्धोदन को इस बात का ध्यान था कि कही ऐसा न हो कि सिद्धार्थ में मानसिक गुणों का ही विकास हो और वह क्षात्र - बल में पिछड़ जाय । सिद्धार्थ स्वभाव से कारुणिक था । उसे यह अच्छा नहीं लगता था कि आदमी , आदमी का शोषण करें । एक दिन अपने कुछ मित्रों सहित वह अपने पिता के खेत पर गया । वहाँ उसने देखा कि मजदूर खेत कोड़ रहे हैं , बांध बांध रहे हैं । किन्तु उनके तन पर पर्याप्त कपड़ा नहीं है । वे सूर्य के ताप से जल रहे है । उस दृश्य का उसके चित्त पर बड़ा प्रभाव पड़ा । उसने अपने एक मित्र से कहा - एक आदमी दूसरे आदमी का शोषण करे , क्या इसे ठीक कहा जायेगा ? मजदूर मेहनत करे और मालिक उसकी मजदूरी पर गुलछरें - उडाये यह कैसे ठीक हो सकता है । उसके मित्रो के पास उसके इस प्रश्न का कोई उत्तर न था , क्योंकि वे पुरानी विचार - परम्परा के मानने वाले थे कि किसान - मजदूर का जन्म अपने मालिक की सेवा करने के लिए ही हुआ है और ऐसा करना ही उनका धर्म है ।शाक्य लोग वप्रमंड , गल नाम का एक उत्सव मनाया करते थे । धान बोने प्रमंड के प्रथम दिन मनाया जाने वाला यह एक ग्रामीण उत्सव था । शाक्यों की प्रथा के अनुसार उस दिन हर शाक्य को अनपे हाथ से हल जोतना पड़ता था । सिद्धार्थ ने हमेशा इस प्रथा का पालन किया । वह अपने हाथ से हल चलाया करता था । यद्यपि वह विद्वान था , किन्तु उसे शरीर - श्रम से घृणान थी । उसका " क्षत्रिय कुल था , उसे धनुष चलाने तथा अन्य शस्त्रों का प्रयोग करने की शिक्षा मिली थी । लेकिन वह किसी भी प्राणी को अनावश्यक कष्ट देना नहीं चाहता था । वह शिकारियों के दल के साथ जाने से इनकार कर देता था । उसके मित्र कहते - " क्या तुम्हे शेर - चीतों से डर लगता है ? " यह प्रत्युत्तर देता - " मैं जानता हूँ कि तुम शेर - चितो को मारने वाले नही हो , तुम हिरनो तथा खरगोशों जैसे निस्पृह जानवरी को ही मारने वाले हो "
" शिकार के लिये नही , तो अपने मित्रों का निशाना देखने के लिये ही आओ " उसके मित्र आग्रह करते । सिद्धार्थ इस तरह के निमंत्रणों को भी अस्वीकार कर देता - " मै निर्दोष प्राणियों के वध का साथी नही होना चाहता । " उसकी इस प्रवृत्ति से प्रजापति गौतमी बड़ी चिन्तित हो उठी । वह उससे तर्क करती - " तुम भूल गये हो कि तुम एक क्षत्रिय कुमार हो । लड़ना तुम्हारा " धर्म " है । शिकार करके ही तुम ठीक - ठीक निशाना लगाना सीख सकते हो । शिकार - भूमि ही युद्ध - भूमि का अभ्यास - क्षेत्र है । " लेकिन सिद्धार्थ बहुधा गौतमी से पूछ बैठते , " तो मां ! एक क्षत्रिय को क्यों लड़ना चाहिये ? " और गौतमी का उत्तर होता , " क्योकि वह उसका धर्म है । " । सिद्धार्थ उसके उत्तर से संतुष्ट न होता । वह गौतमी से पूछता - " मां ! यह तो बता कि आदमी का आदमी को मारना एक आदमी का ही " धर्म " कैसे हो सकता है ? " गौतमी उत्तर देती - “ यह सब तर्क एक संन्यासी के योग्य है । लेकिन क्षत्रिय का तो ' धर्म ' लड़ना ही है । यदि क्षत्रिय भी नही लड़ेगा तो राष्ट्र का संरक्षण कौन करेगा । " ।
" लेकिन मां ! यदि सब क्षत्रिय परस्पर एक दूसरे को प्रेम करें तो क्या बिना कटे - मरे वे राष्ट्र का संरक्षण कर नही सकते ? " गौतमी निरूतर हो जाती । वह अपने साथियों को अपने साथ बैठकर ध्यान लगाने की प्रेरणा करता । वह उन्हें बैठने का ठीक सिखाता । वह उन्हें किसी एक विषय पर चित्त एकाग्र करना सिखाता । वह उन्हे परामर्श देता कि ऐसी ही भावनाओं की भावना करनी चाहिये कि मै सुखी रहूँ , मेरे सम्बन्धी सुखी रहे और सभी प्राणी सुखी रहें । उसके मित्र उसकी बातों को महत्व न देते थे । वे उस पर हँसते थे ।
वे आँखे बन्द करते तो उनका चित्त उनके ध्यान के विषय पर एकाग्र होता । इसकी बजाय उनकी आंखो के सामने नाचते वे हिरन जिनका वे शिकार करना चाहते थे , अथवा वे मिठाई जिन्हें वे खाना चाहते थे । उसके माता - पिता को उसका यह ध्यानाभिमुख होना अच्छा नहीं लगता था । उन्हें लगता था कि यह क्षत्रिय जीवन के सर्वथा प्रतिकूल है । सिद्धार्थ का विश्वास था कि योग्य भावनाओं पर चित्त एकाग्र करने से हम अपनी मैत्री - भावना को बहुत व्यापक बना सकते है । उसका कहना था कि सामान्य रूप से जब भी कभी हम प्राणियों के बारे में कुछ भी विचार करते हैं , हमारे मन में भेद - विभेद घर कर जाते हैं । हम मित्रों को शत्रुओं से भिन्न कर लेते हैं । हम अपने पालतू पशुओं को मनुष्यों से भिन्न कर लेते हैं । हम अपने मित्रों से प्रेम करते हैं अपने पालतू पशुओं से । हम अपने शत्रुओं से घृणा करते है और घृणा करते है सामान्य जन्तुओं से । " हमें " इस विभाजक रेखा की सीमा के उस पार जाना चाहिये । हम यह कार्य तभी कर सकते है जब हम अपने ध्यान में इस व्यवहार - जगत की सीमाओं को लांघ सकें । उसका बचपन करूणामय था । एक बार वह अपने पिता के खेतों पर गया । विश्राम के समय वह एक वृक्ष के नीचे लेटा हुआ प्राकृतिक शान्ति और सौन्दर्य का आनन्द लूट रहा था । उसी समय आकाश से एक पक्षी ठीक उसी के सामने आ गिरा । पक्षी को एक तीर लगा था , जिसने उसे बिंध दिया था और जिसके कारण वह तड़फड़ा रहा था ।
सिद्धार्थ पक्षी की सहायता के लिये उठ बैठा । उसने उसका तीर निकाला , जख्म पर पट्टी बांधी और पीने के लिये पानी दिया । उसने पक्षी को गोद में लिया और अपनी चादर के भीतर छिपाकर उसे अपनी छाती को गरमी पहुँचाने लगा । सिद्धार्थ को आश्चर्य था कि इस असहाय पक्षी को किसने बीधा होगा ? शीघ्र ही उसका ममेरा भाई देवदत्त वहाँ आ पहुँचा । वह शिकार से सभी आयुधों से सन्नद्ध था । उसने सिद्धार्थ से कहा कि उसने उड़ते हुए पक्षी पर तीर चलाया था । पक्षी घायल हो गया था । कुछ दूर उहकर वह वही आस - पास ही गिरा था । उसने सिद्धार्थ से पूछा - " क्या तुमने उसे देखा है ? " सिद्धार्थ ने ' हाँ ' कहकर स्वीकार किया और वह पक्षी भी उसे दिखाया जो अब बहुत कुछ स्वस्थ हो चला था । देवदत्त ने मांग की कि उसका पक्षी उसे दे दिया जाय । सिद्धार्थ ने इनकार किया । दोनो में घोर विवाद हुआ । देवदत का कहना था कि शिकार के नियमों के अनुसार जो पक्षी को मारता है वही उसका मालिक होता है । इसलिये वही उसका मालिक है । सिद्धार्थ का कहना था कि यह आधार ही सर्वथा गलत है । जो किसी की रक्षा करता है , वही उसका स्वामी हो सकता है । हत्यारा कैसे किसी का स्वामी हो सकता है ? । दोनों में से एक भी पक्ष झुकने के लिये तैयार नहीं था । मामला न्यायालय तक पहुंचा । न्यायालय ने सिद्धार्थ के पक्ष में निर्णय दिया । देवदत्त सिद्धार्थ का वैर बन गया। लेकिन सिद्धार्थ की करूणा ऐसी ही अनुपम थी कि वे ममेरे भाई को प्रसन्न बनाये रखने की बजाय एक पक्षी की जान बचाना अधिक श्रेयस्वर समझते थे । सिद्धार्थ गौतम का आरम्भिक जीवल कुछ कुछ ऐसाही था ।
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