Saturday, May 9, 2020

सिद्धार्थ गौतम की शाक्य संघ में दीक्षा

 शाक्य संघ में दीक्षा

     शाक्यों का अपना संघ था । बीस वर्ष की आयु होने पर हर शाक्य तरूण को शाक्य संघ में दीक्षित होना पड़ता था और संघ का सदस्य होना होता था । सिद्धार्थ गौतम बीस वर्ष का हो चुका था । अब यह समय था कि वह संघ में दीक्षित हो और उसका सदस्य बनें । शाक्यों का अपना एक संघ - भवन था , जिसे वह संथागार कहते थे । यह भूत कपिलवस्तु में ही था । संघ सभायें संथागार में ही होती थी । सिद्धार्थ को संघ में दीक्षित कराने के लिये शुद्धोदन ने शाक्य - पुरोहित को संघ की एक सभा बुलाने के लिये कहा । तद्नुसार कपिलवस्तु में शाक्यो के संथागार में संघ एकत्रित हुआ । सभा में पुरोहित ने प्रस्ताव किया कि सिद्धार्थ को संघ का सदस्य बनाया जाये ।   शाक्य - सेनापति अपने स्थान पर खड़ा हुआ और उसने संघ को सम्बोधित किया - " शाक्य कुल के शुद्धोदन के परिवार में उत्पन्न गौतम संघ का सदस्य बनना चाहता है । उसकी आयु बीस वर्ष की है और वह हर तरह से संघका सदस्य बनने के योग्य है इसलिए हो तो बोले । " मेरा प्रस्ताव है कि उसे शाक्य - संघ का सदस्य बनाया जाये । यदि कोई इस प्रस्ताव के विरुद्ध  हो तो बोले । किसी ने प्रस्ताव का विरोध नहीं किया । सेनापति बोला - “ मै दूसरी बार भी पूछता हूँ यदि कोई प्रस्ताव के विरुद्ध हो तो बोले । "  प्रस्ताव के विरुद्ध बोलने के लिये कोई खड़ा नहीं हुआ । सेनापति ने फिर कहा - " मे तीसरी बार भी पूछता हूँ यदि कोई प्रस्ताव के विरुद्ध हो तो बोले । " तीसरी बार भी कोई प्रस्ताव के विरुद्ध नही बोला ।
        शाक्यों में यह नियम था कि बिना प्रस्ताव के कोई कार्यवाही नही हो सकती और जब तक कोई प्रस्ताव तीन बार पास न हो तब तक वह कार्य रूप में परिणत नहीं किया । सकता था ।  क्योकि सेनापति का प्रस्ताव तीन बार निर्विरोध पास हो गया था , इसलिए सिद्धार्थ को विधिवत शाक्य संघका सदस्य बन जाने की घोषणा कर दी गई । तब शाक्यों के पुरोहित ने खड़े होकर सिद्धार्थ को अपने स्थान पर खड़े होने के लिए कहा । " सिद्धार्थ को सम्बोधित करके उसने क्या आप इसका अनुभव करते है कि संघ आपको अपना सदस्य बनाकर सम्मनित किया है ? सिद्धार्थ का उत्तर था - " मैं अनुभव करता हूं । " क्या आप संघ के सदस्यों के कर्त्तव्य जानते हैं ? " " मुझे खेद है कि मैं उनसे अपरिचित हुँ , किन्तु उन्हें जानकर मुझे बडी प्रसन्नता होगी । "
      पुरोहित बोला - " मैं सर्वप्रथम आपको बताऊँगा कि संघ के सदस्य की हैसियत से आपके क्या कर्तव्य है ? " उसने उन्हें एक एक करके क्रमश : गिनाया - " ( १ ) आपको अपने तन , मन और धन से शाक्यों के स्वार्थ की रक्षा करनी होगी । ( २ ) आपको संघ की सभाओं में उपस्थित रहना होगा । ( ३ ) आपको बिना किसी भय या पक्षपात के किसी भी शाक्य का दोष खुलकर कह देना होगा । ( ४ ) यदि आप पर कभी कोई दोषारोपण किया जाय तो आप को कोशिश नहीं होना होगा , दोष होने पर अपना दोष स्वीकार कर लेना होगा , निर्दोष होने पर वैसा कहना होगा । "  इसके आगे पुरोहित ने कहा - " मै आपको बताना चाहता हूँ कि क्या करने संघ के सदस्य न रह सकेंगे - ( १ ) व्यभिचार करने से आप संघ के सदस्य न रह सकेंगे । ( २ ) किसी की हत्या करने पर आप संघ के सदस्य नही रह सकेंगे , ( ३ ) चोरी करने पर आप संघ सदस्य न रह सकेंगे । " सिद्धार्थ का उत्तर था - " मान्यवर ! मै आपका कृतज्ञ हूँ कि आपने मुझे संघ नियमों से परिचित कराया । मै आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मै उनके अर्थ और व्यंजन सहित उन्हे पालन करने का प्रयास करूंगा ।

 संघ से संघर्ष 

       सिद्धार्थ को शाक्य - संघका सदस्य बने आठ वर्ष बीत चुके थे । वह संघ का बड़ा ही वफादार और दृढ सदस्य था । जितनी दिलचस्पी उसे निजी मामलों में थी , उतनी ही दिलचस्पी उसे संघ के मामलों में भी थी । संघ के सदस्य की हैसियत से  उसका आचरण आदर्श था । वह सबका प्रिय - भाजन बन गया था । उसकी सदस्यता के आठवें वर्ष में एक ऐसी घटना घटी जो सिद्धार्थ के परिवार के लिये दुर्घटना बन गई और उसके अपने लिये जीवन - मरण का प्रशन । इस दुःखान्त प्रकरण काआरम्भ इस प्रकार हुआ । शाक्यों के राज्य से सटा हुआ कोलियों का राज्य था । रोहिणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक - रेखा थी । शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने अपने खेत सीचते थे । हर का  फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग कौन करेगा ? वह विवाद कभी - कभी झगड़ों में परिणत हो जाते झगड़े लडाई में । जिस वर्ष सिद्धार्थ की आयु २८ वर्ष की हुई उस वर्ष रोहिणी के पानी को लेकर शाक्यों के नौकरी में और कोलियों के नौकरी में बड़ा झगडा हो गाया । दोनों पक्षों ने चोट खाई । जब शाक्यों और कोलियों को इसका पता लगा तो उन्होने सोचा कि इस प्रश्न का युद्ध के द्वारा हमेशा के लिये निर्णय कर लिया जाय । शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ देने की बात पर विचार करने के लिये संघ का एक अधिवेशन बुलाया । संघ के सदस्यो को सम्बोधित करके सेनापति ने कहा - ' कोलियों ने हमारे लोगों पर आक्रमण किया । हमारे लोगों को पीछे हट जाना पड़ा । कोलियों ने इससे पहले भी अनेक बार ऐसी आक्रमणात्मक कार्यवाइयाँ की है । हमने आज तक उन्हे सहन किया । लेकिन यह इसी तरह नही चल सकता । यह रूकना चाहिये और इसे रोकने का एक ही तरीका है कि कोलियों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जाय । जो विरोध करना चाहे वे बोलें । " सिद्धार्थ गौतम अपने स्थान पर खड़ा हुआ बोला - " मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूँ । युद्ध से कभी किसी समस्या का हल नहीं होता । युद्ध छेड़ देने से हमारे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी । इससे एक दूसरे युद्ध का बीजारोपण हो जायेगा । जो किसी की हत्या करता है , उसे कोई जीतने ने वाला मिल जाता है , जो किसी को जीतता है उसे कोई दूसरा जीतने वाला मिल जाता है ; जो किसी को लूटता है उसे दूसरा कोई लूटने वाला मिल जाता है । "  सिद्धार्थ गौतम ने अपनी बात जारी रखी - " मुझे ऐसा लगता है कि शाक्यों को कोलियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ने में जल्दबाजी से काम नहीं लेना चाहिये । पहले सावधानी से इस बात की जाँच करनी चाहिये कि वास्तव में दोषी पक्ष कौन - सा है ? मैने सुना है कि हमारे आदमियों में भी ज्यादती की है । यदि ऐसा है तो हम भी निर्दोष नहीं है ।  सेनापति ने उत्तर दिया - “ यह ठीक है कि हमारे आदमियों ने ही पहल की थी । लेकिन  यह याद रहना चाहिये कि पहले पानी लेने की भी यह हमारी ही बारी थी । "  सिद्धार्थ गौतम ने कहा - " इससे स्पष्ट है कि हम भी सर्वधा निर्दोष नही है । इसलिए मेरा प्रस्ताव हे कि हम अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी कहा जाय कि वे भी सदा आदमी चुनें और फिर वह चारों मिलकर एक पाँचवाँ आदमी चुनें । ये पाँचो आदमी मलकर झगडे का निपटारा करदें । "   सिद्धार्थ गौतम ने प्रस्ताव में जो परिवर्तन सुझाया था उसका विधि - वत् समर्थन हो गया। किन्तु सेनापति ने विरोध किया । कहा - " मुझे निश्चय है कि जब तक कोलियों को कड़ा दण्ड नहीं दिया जाता तब तक उनका यह समाप्त नही होगा । "  प्रस्ताव और उसमें सुझाये हुए परिवर्तन पर मत लेने आवश्यक हो गये । पहले सिद्धार्थ के सुझाये परिवर्तन पर ही मत लिये गये । बहुत बड़े बहुमत से सिद्धार्थ का सुझाव अमान्य हो गया।
      इसके बाद सेनापति ने स्वयं अपने प्रस्ताव पर मत मांगे । सिद्धार्थ गौतम ने फिर खड़े होकर विरोध किया । उसने कहा - " मेरी प्रार्थना है कि संघ इस प्रस्ताव को स्वीकार न करे । । शाक्य और न कोकिलये निकट - सम्बन्धी है । परस्पर एक दूसरे का नाश करने में बुद्धिमानी नहीं है । सेनापति ने सिद्धार्थ गौतम की स्थापना का सर्वधा विरोध किया । उसने इस बात पर जोर दिया कि युद्ध में क्षत्रियों के लिये कोई अपना - पराया नही होता । राज्य के लिये उन्हें अपने सगे भाइयों से भी लड़ना ही चाहिये । ब्राह्मणों का धर्म है यज्ञ करना , क्षत्रियों का धर्म युद्ध करना , वैश्यों का धर्म है । व्यापार करना और शूद्रों का धर्म है सेवा करना । हर किसी को अपना अपना धर्म निभाने में ही पुण्य है । यही शास्त्रों की आज्ञा है ।  सिद्धार्थ का उत्तर था - " जहा तक मै समझ सका हूँ , धर्म तो इस बात के हृदयंगम करने में है कि वैर से वैर कभी शान्त नही होता । यह केवल अवैर से ही शान्त हो सकता है । सेनापति बेसबर हो उठा । बोला - " इस दर्शनिक शास्त्रार्थ में पडना बेकार है । स्पष्ट बात यह है कि सिद्धार्थ को मेरा प्रस्ताव अमान्य है । हम संघ का मत लेकर इसका निश्चय करें कि संघ का क्या विचार है ? "  तदनुसार सेनापति ने अपने प्रस्ताव पर लोगो के मत मांगे । बड़े भारी बहुमत से प्रस्ताव पास हो गया ।

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