प्रधानमंत्री का कुमार को समझाना
उदायी समझ गया कि तरूणीयाँ असफल रही है और राजकुमार ने उनमें कोई दिलचस्पी नही ली । नीतिकुशल उदायी ने राजकुमार से स्वयं बात करने की सोची । राजकुमार से एकांत में उदायी ने कहा - " क्योकि मुझे राजा ने आपके पर नियक्त किया । इसलिए म एक मित्र की अहमित से आप से दो बातें करना चाहता हूँ । " किसी अहित - काम से बचना , हितकर काम में लगना विपत्ति में साथ ना छोइना - मित्र के यह ही तीन लक्षण है । " यदि में अपनी मैत्री की घोषणा करने के अनन्तर भी पुरुषार्थ से विमुख्य आपको को ना समझाऊँ तो मै अपने मैत्री धर्म से च्युत होता हूँ । " ऊपरी मन से भी स्त्रियों से सम्बन्ध जोड़ना अच्छा है इससे आदमी का संकोच जाता है और मन का रंजन भी होता है । " निरादर न करना और उनका कहना मानना - इन दो बातों से स्त्रियाँ प्रेम के बंधन में बंधजाती है । '' हे विशालक्षा क्या आप ऊपरी मन से भी , उनके सौन्दर्य के अनुरुप शालीनता दिखाने के लिये , उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास न करेगें ? । " दाछिण्य ही स्त्रियों की औषधी है । दाक्षिण्य ही उनका अलंकार है । बिना दाक्षिष्य का सौन्दर्य पुष्प - विहीन उद्यान के समान है ।" लेकिन अकेले दाक्षिण्य से भी क्या ! उसके साथ हृदय की भावना का भी मेल होना चाहिये । इतनी कठिनाई से हस्तगत हो सकने वाले काम भोग जब आपकी मुट्ठी में है तो निश्चय से आप उनका तिरस्कार न करेंगे । " काम को ही सर्वप्रथम पुरुषार्थ मान कर , प्राचीन काल में , इन्द्र तक ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का अलिगंन किया । “ इसी प्रकार अगस्त ऋषि ने भी सोमभार्या के साथ रमण किया और श्रुति अनुसार लोवामुद्रा के साथ भी यही बीती । " औतथ्य - पत्नी मरूत की पुत्री ममता के साथ ऋषि बहस्पति ने सहभोग किया और भरद्वाजको जन्म दिया । " अर्ध्य अर्पण करती हुई बृहस्पति की पत्नी को चन्द्रमा ने ग्रहण किया और दिव्य बुध को जन्म दिया । " इसी प्रकार पुरातन समय में रागतिरेक के पराशर ऋषि ने यमुना तट पर वरूण - पुत्र की पुत्री काली के पास सहवास किया । " वसिष्ठ ऋषि ने अक्षमाला नाम की एक नीच जाति की स्त्री से सहवास किया और कपिजलाद नाम के पुत्र को जन्म दिया । " और बड़ी आयु हो जाने पर भी राजर्षि ययाति ने चैत्ररथ वन में अप्सरा वियवाची के साथ संभोग किया ।
“ यद्यपि वह जानता था कि पत्नी के साथ सहवास उसकी मृत्यु का कारण होगा तो भी कौरव - नरेश पाण्डु माद्री के रूप और गुणों पर मुग्ध हो , प्रेम के वशीभूत हो गया । “ इस प्रकार के महान परुर्षों तक ने जुगुप्सित काम - भोगो का सेवन किया है । तब प्रशंसनीय काम - भोगों के सेवन में तो दोष ही क्या है " यह सब होने पर भी , आश्चर्य है कि शक्ति , तारूण्य और सौन्दर्य से सम्पत्र आप उन काम - भोगो की उपेक्षा कर रहे हैं जिन पर न्यायतः आपका अधिकार है और जिनमें सारा जगत आसक्त है । "
राजकुमार का प्रधान मन्त्री को उत्तर
पवित्र परम्परा से समर्थिताम , उचित ही प्रतीत होने वाले इन वचनों इन वचनों को सुनकर मेघ - गर्जन सदृश स्वर में राजकुमार ने उत्तर दिया । " आपकी स्नेह - सिक्त भाषा में तो आपके योग्य ही है , लेकिन मैं आपको बताऊंगा कि आप कहाँ गलती पर है । " मै संसार के विषयों की अवज्ञा नही करता । मैं जानता हूँ कि सारा जगत इन्ही में आसक्त है । लेकिन क्योंकि मै जानता हूँ कि सारा संसार अनित्य है , इसलिये मेरा मन उनमें रमण नही करता । " यदि यह स्त्री - सौन्दर्य स्थायी भी रहे , तो भी यह किसी बुद्धिमान आदमी के योग्य नहीं कि उसका मन विषयों में रमण करें । " और जहाँ तक तुम कहते हो कि वे बड़े - बड़े महात्मा भी विषयों के वशी- भूत हुए है तो वे इस विषय में प्रमाण नहीं है , क्योकि अन्त में वे भी क्षय को प्राप्त हुए है । " जहाँ क्षय है वहां वास्तविक महानता नहीं है , जहां विषयासक्ति है वहां वास्तविक महानता नहीं है , जहां असंयम है वहां वास्तविक महानता नहीं है । " और यह जो आपका कहना है कि ऊपरी मन से ही स्त्रियों से प्रेम करना चाहिये तो चाहे दक्षता से भी हो तो भी मुझे यह रूचिकर नहीं है । “ यदि यह यथार्थ नहीं है तो मुझे स्त्रियों की इच्छा के अनुसारी अनुवर्तन भी प्रिय नहीं । यदि आदमी का मन उसमें नहीं है तो ऐसे अनुर्वजन का भी धिक्कार है । " जहाँ राज का अधिकार है , जहाँ मिध्यात्व में विश्वास है , जहाँ असीम आसक्ति है और विषयों की सहायता का यथार्थ दर्शन नही - ऐसी वज्चना में भी क्या धरा है ।" और यदि राग के वशीभूत हुए प्राणी परस्पर एक दूसरे को ठगते है तो क्या ऐसे पुरूष भी इस योग्य नहीं है कि स्त्रियां उनकी ओर देखे तक नहीं और क्या स्त्रियां भी इस योग्य नहीं कि पुरूष उनकी और देखें तक नहीं ? " क्योकि यह सब ऐसा ही है , इसलिए मुझे विश्वास है कि तुम मुझे विषय - भोग के अशोभन कुपथ पर नही ले जाओगें । राजकुमार के सुनिश्चित दृढ़ संकल्प ने उदायी को निररूतर कर दिया । उसने राजा को सारा वृतान्त जा सुनाया । जब शुद्धोदन को यह मालूम हुआ की उसके पुत्र का चित्त किस प्रकार विषयों से सर्वाथा विमुख है तो उसे सारी रात नींद नही आई । उसके दिल में वैसा ही दर्द था सर्वघा जैसी कि हाथी की सी छाती में जैसे तीर लगा हो । अपने मंत्रियों के साथ उसने बहुत सा समय यह विचार करने पर खर्च किया । कि वह किस उपाय से सिद्धार्थ को संसार के विषयों की ओर अभिमुख कर सकें और उसे जीवन से विमुख कर सके जिसकी ओर अग्रसर होने की उसकी पूरी संभावना थी । लेकिन उन उपायों के अतिरिक्त जिन्हें करके वह मात खा चुके थे , उन्हे कोई दूसरा उपाय नही सूझा । जिन की पुष्प मालायें और अंलकार व्यर्थ सिद्ध हो चुके थे , जिनके हाव - भाव और आर्कषण - कौशल निष्प्रायोजन सिद्ध हो चुके थे , जिनके हाथ में निगुढ़ प्रेम था , उन तरूणियों की सारी मंडली विदा कर दी गई ।
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